गंध की एक नहर तुम से मुझ तक बहती है
कितना कुछ अनछिना
कितना कुछ अनकहा
एक विश्व संवेदनाओं का बहा लाती है
तुम से मुझ तक
मुझ से तुम तक
हाँ
मुझ से तुम तक अविराम बहती है एक नहर गंध की
यही, शायद यही संगती है उस संबंध की
जिसे अर्थ देने को दर्पण पर झुकी लड़की
घंटों परेशान रहती है
गंध की नहर पर तैरकर में न सही
मेरा गीत आ सकता है
स्पर्श तुम्हारे एकांत का पा सकता है
यही, हाँ यही, परिणीती है इस संबंध की
कितना कुछ अनछिना
कितना कुछ अनकहा
एक विश्व संवेदनाओं का बहा लाती है
तुम से मुझ तक
मुझ से तुम तक
हाँ
मुझ से तुम तक अविराम बहती है एक नहर गंध की
यही, शायद यही संगती है उस संबंध की
जिसे अर्थ देने को दर्पण पर झुकी लड़की
घंटों परेशान रहती है
गंध की नहर पर तैरकर में न सही
मेरा गीत आ सकता है
स्पर्श तुम्हारे एकांत का पा सकता है
यही, हाँ यही, परिणीती है इस संबंध की
बहती है तुम से मुझ तक एक नहर गंध की
(इस कविता के लेखक के बारे में बहुत ढूँढने की कोशिश की, पर कुछ नहीं मिला, मैंने नहीं लिखी है)
कवि हैं अनिल राकेशी
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