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Tuesday 19 August 2014

कब तक दबाओगे खौलते लावे को

09:48 Posted by Unknown No comments

मुझे इस कविता के लेखक के बारे में कुछ नहीं पता, शायद में जानना भी नहीं चाहता, अक्सर हम कविता से ज्यादा लेखक को महत्व देने लगते है, कुछ लेखकों के कूड़ा-करकट पर भी हम तालियाँ बजाते है की इतना महान लेखक है तो कुछ सोच समझ कर ही लिखा होगा, और कई बार हम पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर कुछ लेखकों की रचनाओं को पहचानने से ही इनकार कर देते है ।
बहरहाल ये कविता 1984 की फिल्म 'पार्टी' से है-

भींचे हुए जबड़े अब दर्द कर रहे है
कितनी देर तक दबाया जा सकता है अन्दर खौलते लावे को
किसी भी पल खोपड़ी क्रेटर में बदल जाए
उससे पहले जानलेवा ऐंठन को लोमड़ी की पूँछ में बांधकर दाग देना होगा
हमले से बढ़कर हिफाजत की कोई रणनीति नहीं है
बेकार है ये सवाल की संगीन(तलवार) किस कारखाने में ढली है
फर्क पड़ता है तो इस बात से की कौन सा हाथ उसे थामे है और किसका सीना उसकी नोंक पर है
फर्क तो पड़ता है की उस जादूनगरी पर किसका कब्ज़ा है
जहाँ रात दिन पसीनों की बूंदों से मोतियों की फसल उगाई जाती है
मानवता के धर्मपिता
न्याय और सत्य का मंत्रालय
कंप्यूटर को सोंपकर आश्वश्त है
वही निर्णय देगा
निहत्थी बस्तियों पर गिराए गए टनों नापाम बम
या तानाशाह की कार पर फेंका गया इकलोता हथगोला
इंसानियत के खिलाफ कौनसा जुर्म संगीनतर है
दरअसल
इंसाफ और सच्चाई में इंसानी दखल से संगीन जुर्म कोई नहीं है
ताक़त
ताक़त बन्दूक की फौलादी नली से निकलती है
या कविता के कागज़ी कारतूस से
जिसके कोष में कहने का अर्थ है होना
और होने की शर्त लड़ना
उसके लिए शब्द किसी भी ब्रम्ह से बड़ा है
जो उसके साथ हर कदम पर खड़ा है
खतरनाक यात्रा के अपने आकर्षण है
आकर्षक यात्रा के अपने खतरे
इन्ही खतरों की सरगम से दोस्त
निर्मित करना है हमें दुधारी तलवार जैसा अपना संगीत

भींचे हुए जबड़े दर्द कर रहे है
कब तक दबाओगे खौलते लावे को

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