सभी बाधाओं को चतुरता से पार करता | दुष्टों के मार्ग में अनेक बाधा डालता | अपने सहयोगियों के प्रेम को हरता | उनके विस्वास को बढाता | उन्हें लड़ने के नए-नए गुर सिखाता | उसने नवसिखियों के सेना बना कर नेता द्वारा घोषित आसुरी सेना का मार्ग को रोक रखा था | नेता को विजेता बनाने के लिए तरुण ने विजय द्वार से दो पग पहले ही अपना कदम रोक लिए | उस विजय द्वार के चौखट से आगे अब नेता को सूत्र संभालना था | समय कुछ पल के लिए ठहर सा गया था | जय और पराजय के अंतर के बीच वह चौखट विशाल शिला के सामान था | उस तरुण के साथ हजारो तरुण, वृद्ध, नर- नारी अपलक काल चक्र के चौघडिया देख रहे थे | तभी अचानक नियति ने नेता को चौखट के उस पार ला कर खड़ा कर दिया | नेता विजेता बन गया | उसकी यश, उसकी कीर्ति सुदूर पाताल लोक तक पहुँच रही थी | पाताल में बसे नरकंकाल भी नेता का स्वस्तिक वाचन कर रहे थे |
एक दिन तरुण संतुष्ट और विजीत भाव में नेता के सामने प्रकट हुआ | नेता ने दोनों भुजाओ में तरुण को लपेट लिया |
वह बोल पड़ा “बड़ी उर्जा है तुझमे”
“मुझे प्रयास करना ही न पड़ा | सुखद कामना वाले लोग सहज ही मिल गए” तरुण ने हँस कर कहा |
“तुमने क्या किया है ?”
“बस राजनीति ”
“हाँ” |
“कहाँ ?”
“अपने काम में | मैंने जो भी पाया है राजनीति से ही पाया है”
“अरे वाह प्रिये” - नेता उल्लास से चीख उठा | आनंद में उसने तरुण को गले लगा लिया |
“और आज के बाद ?”
तरुण ने अपनी भुजा ढीली करते हुए कहा – “रुक तनिक”
“अब नहीं |"
उसने धकेल कर तरुण को अपने से पृथक किया और हंसते हुए सोफे में धंस गया |
सूर्य क्षितिज पर झुक चला | तरुण धीरे से पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया |
नेता ने तरुण की तरफ देखते हुए कहा -
“तू कर्मठ है |”
“सच”
“सच, ऐसा और नहीं देखा |”
“और कितने लोग मेरी तरह अपन सर्वस्व लुटा कर आये हैं ?”
“बहुत |”
“कितने ?”
“मैंने गिने तो नहीं”
“क्यों ”
“मुझे इसमें अभिरुचि नहीं है”
“मै तेरे जैसा बनाना चाहता हूँ”
“वाह, ऐसा भी कभी होता है ? मै नेता हूँ, नेताओ की यह मर्यादा नहीं |”
“कैसी मर्यादा ?”
“किसी को नेता बनाने की”
“तो मै ?”
“तू कर्मठ है, तेरी बुद्धि तीव्र है, तू मुझे जग में सुपूजित करने का मार्ग प्रशस्त कर”
“मै किसी दुसरे प्रदेश का शुभ करना चाहता हूँ”
“मै सभी प्रदेशो का अस्तित्व मिटाना चाहता हूँ | कोई भी प्रदेश न रहेगा सिर्फ एक प्रदेश रहेगा जिसे मै स्थापित करूँगा”
“हाँ सिर्फ मै”
“मेरे लिए क्या आदेश है”
“तू समस्त पृथ्वी पर मेरा यश फैला”
“मै ही क्यों”
“क्यों की तेरी इक्षा है”
“मै अस्वीकार करू तो”
तरुण की आँखे लाल हो चुकी थी | पता नहीं दुःख था या क्रोध |वह नेता की तरह सैकड़ो योद्धाओं का निर्माण चाहता था ताकि अल्पकाल में ही सम्पूर्ण भारत में शुभ का मंगलगान हो सके | वह ऐसी व्यवस्था के प्रति सजग लोगो के खोज