Pen in our hands, Hope in our hearts

Wednesday 1 October 2014

क्या आपके पास बापू का भूत जगाने का मन्त्र है ???

19:42 Posted by Unknown , No comments
कई बार भूत की कहानी देखी और सुनी है, पंडित लोग कहते हैं कि परेशान आत्मा ही भूत बनती है । जब तक उसे तसल्ली नहीं होती, उसकी इच्छाएं पूरी नहीं होती वह नर्क में भटकती रहती है । मेरे मन में एक सवाल आया कि आखिर ये गाँधी जी का भूत कहाँ मर गया । बस क्या था फिर मुहँ उठाये पहुँच गए राजघाट , चारो कोनों में खूब बारीकी से ढूँढा, दिख भी नहीं रहा था , फिर जोर–जोर से चिल्लाने लगा "अरे भाई गाँधी जी के भूत तुम मेरी आवाज सुन रहे हो क्या तनिक आओ यार कुछ बात करनी है" । पास खड़ा एक आदमी बोला, "ज्यादा तेज मत बनो, हम यहाँ 66 साल से आ रहे हैं ,बुला- बुला के थक गए हमसे तो आया नहीं तुम आकर शोर मचाओगे तो क्या आ जाएगा "। मैंने ऊपर से नीचे तक उन्हें देखा, दुबले-पतले जिंर्ण शरीर पर मोटा- मोटा खादी के धोती-कुर्ता में बंधे पाया । उसका चश्मे से उसका मोतिया साफ़ झलक रहा था वो वॉकर के सहारे अपनी हड्डियों को संभाल कर खड़ा था । उसके कटाक्ष ने दिल पर गहरा आघात किया । में बूढ़े को कुछ देर तक देखता रहा फिर पास जा कर ( मन में, "अबे बुड्ढ़े" का भाव लिए ) गुस्से में चिल्लाया ‘कोई भी एक काम ढंग का किया है, सिवाय मना करने के, की ऐसे नहीं होता, वैसे नही होता । रोज हारमोनियम ले कर बैठ जाते थे आप जैसे लोग और ताली पीट पीट कर राम भजन गया करते थे । आप लोगों के सामने त्रेता युग से राम को पकड़ कर कलयुग में सुप्रीम कोर्ट में चक्कर कटवाया जा रहा है । रखी थी कभी ऐसी इच्छाशक्ति ।"

वो मुस्कुराने लगा । उसे मुस्कुराता देख अचानक मेरी चेतना लौटी । में उसके पास जा कर अपराध भाव से बोला, "बाबा मुझे माफ़ कर दो मैंने गुस्से में पता नहीं क्या-क्या बोल गया । मैंने आपका दिल दुखाया है ।"

इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है तुम सही ही तो कह रहे हो | मै बूढ़े की और बढ़ा उनको सहारा देकर जमीन पर बैठाया, मै उससे बात करना चाहता था सो मै उसके पास ही बैठ गया | बुड्ढ़े ने अगले ही पल अपनी मुद्रा को गंभीर करते हुए कहा, 'आओ मै तुम्हे गाँधी का भूत दिखता हूँ' | उसने अपना चश्मा उतर कर मुझे दिया | मैंने ज्यो ही उसे पहना, एक अर्ध नंग नरकंकाल को समाधी के पूर्वी छोर पर दुबका पाया | अभी मै कुछ बोलता की उसने चश्मा वापस ले लिया | और बोला यह अभी सो रहा है | मैंने और मेरे दोस्तों ने बहुत मेहनत की इसे जगाने की पर जाग ही नहीं रहा | कोई कह रहा था कि 66 साल से कुछ पंडितो को बहाल कर दिया गया है अखंड ‘गरुड़ पुराण’ के पाठ करने में, ताकि ये जाग न जाए |

- आप लोगो ने किसी पंडित को नहीं ढूंढा - मैंने पुछा   
-एक मिला था बड़ा ही ओजस्वी पंडित था | वह जब पाठ करता तो लगता था कि यह भूत अभी उठ खड़ा होगा और अपनी सारी इच्छाएं पूर्ण कर के मोक्ष को पा लेगा | लेकिन थोड़े ही दिनों बाद पता नही वो कौन-कौन से मंत्र पढ़ने लगा | भूत तो भूत उस मंत्र को सुनने वाले भी सो गए | उसे इसी भूत ने चुना था भारत का पहला प्रधानमन्त्री बनने को, बाद में खुद उस पंडित का भूत अपनी बेटी-नातियों के चक्कर में परेशान घूमता दिखाई दिया ।

अब हमारी बात सहज भाव में हो रही थी
-फिर आप लोगों ने क्या किया – मैंने पुछा
-बस वही गवई ओझा–गुनी का इलाज | चरखा–खादी, गोबर- गोईठा, बकरा-बकरी क्या क्या नहीं ले कर आये लेकिन ये तो कभी फुसफुसाया भी नहीं |
-देखिये बाबा इस गवई ओझा–गुनी करने से कुछ होने जाने वाला नहीं है | यह आप देख ही रहे है कि नए- नए  इस भुत का नाम इस्तमाल कर के हीरो बन गए हैं | और भूत ने मोक्ष भी प्राप्त नही किया है |  आज स्वराज के नाम पर ऐसा ही एक हीरो भूत के विचारों की धज्जियाँ उड़ा रहा है ।
-वो तो है पर अब कौन सा रास्ता है एक बार तो पंडित भी कर के देख लिया | तुम्हारे पास कोई जड़ी- बूटी है तो सुझाओ- बुढा बोला |
बाबा को हतास देख कर मेरा क्रोध भी हतास हो गया वो भी बाबा के सुर में सुर मिलाने लगा |
-सुना है कुछ लोगो ने एक नागा साधू को पूरा कपडा पहना दिया है | अब वह खुद कपडे पहन कर दुसरो को नंगा करता फिरता है | जब से मैंने सुना है कि इस बार बापू के जन्मदिन पर वो आएगा तब से मुझे इस भूत की फटी लंगोटी की चिंता होने लगी है कही जाते समय उतार के न ले जाये | देश की सफाई करते करते वो भूत की लंगोट पर भी हाथ साफ़ न कर जाए । आजकल वैसे भी अपनी भगवा लंगोट बदलने के लिए खादी ढूंढ रहा है ।ये तो हिलेगा भी नहीं कहते-कहते बाबा का आँखे गीली हो गयी |

अब मै क्या कहता भूत भी मरता है यह आज देखा | जिस जोश में बापू के भूत से मिलने आया था अभी तत्काल उसे छुपाने की विधि सोचने लगा | बाबा ने कहा भूत को छुपाने की विधि मत सोचो अगर लंगोट ले जायेगा तो ले जाने जाये | बस ये भुत छोड़ जाये हम एक नई लंगोट ले आएंगे थोड़ी देर ही तो नागा रहगा | वैसे भी यह भूत कितनो को दीखता है |

बाबा के लिए मै घर आ कर वेद पढ़ने लगा हूँ | शायद बापू के भूत को जागृत कर करने का कोई मंत्र मिल जाये आपके पास कोई मंत्र है तो बताइयेगा | आपसे अनुरोध है इस 66 वर्षीय भूत पे ध्यान दीजिये ताकि त्रेता वाले भूत को भी मोक्ष दिलवा सकें |  

 

Sunday 14 September 2014

बनावट

23:51 Posted by Unknown No comments
बनावट
जब मै गाँव में टूटी खटिया को बीन रहा होता था तो पड़ोस के राजबली चाचा आ कर आगाह करते थे की बनावट पर ध्यान दो नहीं तो सुन्दर नहीं दिखेगा और मै बनावट’ को ध्यान में रख कर बीनाई किया करता था बीनाई के बाद खटिया कितना सुन्दर दिखता था मेरी हाथ की बुनाई अच्छी हो गई थी राजबली चाचा का यह सबक याद रह गया कि बनावट’ पे ध्यान देना चाहिए| ‘बनावट’ का सबक ऐसे ही सब ने मेरी तरह किसी न किसी प्रकार से सीखी होगी | इसीलिए लोगो का मिलानेबोलनेलिखने आदि में बनावट का जोर है | 
                       ये जो चलन है शिष्टाचार का की आपसे बात कर या मिल के बहुत अच्छा लगा हैं यह रवायत मन में खीज सा पैदा करता है जबकि घंटो बाते कर के बाद भी मन की बात पूरी नहीं होती नकली हँसीनकली बातेंहम सब कितने नकली हो गए हैं कहीं यह व्यवहार हमारे नकली सामान का उपभोग करने का नतीजा तो नहीं ?
                          मुझे कई बार एक दिनी मित्र’ मिल जाते हैं जो अपने सभी उपलब्धियों को इतने बनावटी ढंग से परोसते है कि मुझे कहने का मन करता है कि- मान्यवर आपसे अच्छी बनावट तो मेरे खटिये में थी दोस्त- दोस्त कर जब वो बात करते है तो मुझे पता ही नहीं चलता कि कब मै उनका दोस्त बन गया आज कल ऐसा लगता है कि मेरा दिमाग ठीक से सिग्नल नहीं दे रहा है मेरे दोस्त बन भी जाते हैं और मुझे पता भी नहीं चलता है मै सोचता हूँ कि चलो कोई मुझे दोस्त कह रहा है तो मेरा दोस्त बन गया होगा अब दोस्त से मन की बात क्या छुपानी मै भी लगे हाथो अपनी भी व्यथा पेश किये देता हूँ |वैसे भी आज कल दोस्त बड़ी मुस्किल से मिलते हैं मगर साहब तो अविराम अपनी जीवन अध्याय सुनाये जाते है धीरे – धीरे उनकी बात को कान दिमाग तक पहुँचाने में असमर्थ हो जाता है मन व्याकुलता से अपने पुराने दोस्तों को याद करने लगता है और हाँथ मोबाईल के बटन दबा दोस्त को फोन कर देता है | “अबे साले कहाँ मर गया जल्दी आ जाआज का मेरा एक दिनी मित्र’ ने मेरा हार्ड डिस्क फुल कर दिया है मुझे तुझे कुछ डेटा ट्रांसफर करना पड़ेगा |”  
           
                  ‘एक दिनी मित्र’ बिछड़ते वक्त जोश में हाँथ मिलते है और कहते है कि आप से मिल कर बहुत अच्छा लगा चलिए फिर मिलते हैं... अच्छा जरा आप अपना मोबाईल नंबर दे दीजिये” | अब दोस्त बनाया है तो इतना तो फर्ज अदा करना पड़ेगा ये  जानते हुए कि फोन मेरे लिए नहीं आएगा बस किसी विशेष प्रयोजन से वो दोस्ती की दुहाई देंगे और मुझे सहर्ष स्वीकार करना पड़ेगा |
कई बार सोचता हूँ क्यों न लोगो को खटिया बुनना सिखा दूँ  सुन्दर भी दिखेगा और सोने के बाद नींद भी अच्छी आयेगी |


Thursday 11 September 2014

नहर गंध की

06:17 Posted by Unknown 3 comments
गंध की एक नहर तुम से मुझ तक बहती है
कितना कुछ अनछिना
कितना कुछ अनकहा
एक विश्व संवेदनाओं का बहा लाती है
तुम से मुझ तक
मुझ से तुम तक
हाँ
मुझ से तुम तक अविराम बहती है एक नहर गंध की
यही, शायद यही संगती है उस संबंध की
जिसे अर्थ देने को दर्पण पर झुकी लड़की
घंटों परेशान रहती है
गंध की नहर पर तैरकर में न सही
मेरा गीत आ सकता है
स्पर्श तुम्हारे एकांत का पा सकता है
यही, हाँ यही, परिणीती है इस संबंध की
बहती है तुम से मुझ तक एक नहर गंध की

(इस कविता के लेखक के बारे में बहुत ढूँढने की कोशिश की, पर कुछ नहीं मिला, मैंने नहीं लिखी है)

Sunday 31 August 2014

तू न प्रथम है न अंतिम

07:01 Posted by Unknown 1 comment
उसने आकाश में चमकती बिजली को आँखों में स्थाई रूप से कैद कर लिया था | उसकी आँखे की अग्नि अद्भूत उर्जा का संचार कर रही थी | चौड़ा मस्तक को देख ऐसा लगता था कि हजरो लोगों ने अपनी भाग्य की रेखाओ को उसके मस्तक में लोप कर दिया हो | उसकी भाषा ने सदियों से मौन वाणी को जीवित कर वायुमंडल में ध्वनि का तूफान खड़ा दिया था | ये उसकी मोहनी विद्या थी या लोगो की विवशता | जब वह हाथ उठता तो जमीन पर रेंगने वाले लोग असमान को अपनी आँखों में भर लेते थे | जब वो कदमताल करता तो हजारो लोग सजीव हो जाते | लोगों ने मरने के लिए, मिटने के लिए, उठाने के लिए, चलने के लिए, जागने के लिए, जीने के लिए, उसकी बात पर भरोषा किया | उस योधा ने सभी को विश्वास दिलाया कि उसका युद्ध सत्य की स्थापन के लिए है | दुष्टों के नाश के लिए है | जो लोग अपने जन्म पे पछताते है उन्हें इस इस निराशा से मुक्ति दिलाने के लिए है, उन्हें जीवन का वास्तविक मूल्य समझाने के लिए है | उसने सभी से संकल्प लेने के लिए आवाहन किया | उसके हुँकार से सभी मृत आत्माएं पुनर्जीवित हो उठी | लोगो के जयघोष से तो स्वर्ग में बैठे देवता की निंद्रा भी टूट गई होगी | उसकी बातो से लोगो को विश्वास हो चल था कि यही वो नेता है जो हमारा भाग्य परिवर्त कर सकता है | हमारे राष्ट्र को विश्व में प्रतिष्टित कर सकता है |
         नेता के भाषण को सुन वहां खड़े उस तरुण का कंठ रुंध-सा गया | उसके नेत्र सजल हो उठे | उसके शारीर में तडित ने प्रलायात्मक गति से संचार किया | वह उस नेता के ओजस्वी भाषण को सुन अपना सर्वस्व नेवछावर कर देना चाहता था | उसके कदम अन्यास ही नेता की तरफ बढ़ने लगे | तरुण को अपनी तरफ बढ़ता देख नेता ने उसे गले से लगा लिया | पल भर के संवाद से नेता को यह भान हो गया कि यह कोई साधारण पुरुष नहीं है | इसमें भी युग पुरुष होने के लक्षण हैं |   

नेता ने तरुण को आदेश दिया- उद्योग करो, हमें जीतना है, हमें सत्य की स्थापना करनी है | दुष्टों का दमन करना है | तरुण ने सूर्य को साक्षी मान नेता को स्थापित करने का संकल्प किया |  
प्रथम दिन तरुण अहिस्ता – अहिस्ता अपने को दर्पण में देख कर श्रृंगार करना शुरू किया | ‘टोपी को मुकुट के सामान मस्तक पे धारण कियानेता चित्र अंकित मफलर’ को अंगवस्त्र की तरह गले में डालेनेता चित्र अंकित बैच’ को मैडल की तरह सीने पर सजायाऔर हाथ में प्रतिक चिन्ह’ तलवार की भांति ले लम्बे लम्बे डग भरता हुआ कर्मक्षेत्र में आगे बढ़ा |
सभी बाधाओं को चतुरता से पार करता | दुष्टों के मार्ग में अनेक बाधा डालता | अपने सहयोगियों के प्रेम को हरता | उनके विस्वास को बढाता | उन्हें लड़ने के नए-नए गुर सिखाता | उसने नवसिखियों के सेना बना कर नेता द्वारा घोषित आसुरी सेना का मार्ग को रोक रखा था | नेता को विजेता बनाने के लिए तरुण ने विजय द्वार से दो पग पहले ही अपना कदम रोक लिए | उस विजय द्वार के चौखट से आगे अब नेता को सूत्र संभालना था 
समय कुछ पल के लिए ठहर सा गया था जय और पराजय के अंतर के बीच वह चौखट विशाल शिला के सामान था | उस तरुण के साथ हजारो तरुण, वृद्ध, नर- नारी अपलक काल चक्र के चौघडिया देख रहे थे | तभी अचानक नियति ने नेता को चौखट के उस पार ला कर खड़ा कर दिया नेता विजेता बन गया उसकी यशउसकी कीर्ति सुदूर पाताल लोक तक पहुँच रही थी पाताल में बसे नरकंकाल भी नेता का स्वस्तिक वाचन कर रहे थे 

एक दिन तरुण संतुष्ट और विजीत भाव में नेता के सामने प्रकट हुआ 
नेता ने दोनों भुजाओ में तरुण को लपेट लिया 
वह बोल पड़ा 
बड़ी उर्जा है तुझमे” 
मुझे प्रयास करना ही न पड़ा सुखद कामना वाले लोग सहज ही मिल गए” तरुण ने हँस कर कहा 
तुमने क्या किया है ?”
बस राजनीति 
हाँ” |
कहाँ ?” 
अपने काम में मैंने जो भी पाया है राजनीति से ही पाया है” 
अरे वाह प्रिये” - नेता उल्लास से चीख उठा आनंद में उसने तरुण को गले लगा लिया 
तरुण ने दोनों भुजाओ से नेता को लपेटते हुए बोला – “अब तो मै तेरा हूँ 
नेता ने भुजा ढीली कर कहा – “ आज तू मेरा है तू स्वछंद काम कर |”    
और आज के बाद ?” 
जैसा मेरा मन होगा जैसा मुझे रुचेगा |” 
तरुण ने अपनी भुजा ढीली करते हुए कहा 
– “रुक तनिक
अब नहीं |"      
उसने धकेल कर तरुण को अपने से पृथक किया और हंसते हुए सोफे में धंस गया 
|
 
सूर्य क्षितिज पर झुक चला 
तरुण धीरे से पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया | 
नेता ने तरुण की तरफ देखते हुए कहा -
 
तू कर्मठ है |”
सच
सचऐसा और नहीं देखा |” 
और कितने लोग मेरी तरह अपन सर्वस्व लुटा कर आये हैं ?”
बहुत |”
कितने ?”
मैंने गिने तो नहीं
क्यों 
 
मुझे इसमें अभिरुचि नहीं है
मै तेरे जैसा बनाना चाहता हूँ
वाहऐसा भी कभी होता है मै नेता हूँनेताओ की यह मर्यादा नहीं |”
कैसी मर्यादा ?”
किसी को नेता बनाने की
तो मै ?”
तू कर्मठ हैतेरी बुद्धि तीव्र हैतू मुझे जग में सुपूजित करने का मार्ग प्रशस्त कर
 
मै किसी दुसरे प्रदेश का शुभ करना चाहता हूँ
मै सभी प्रदेशो का अस्तित्व मिटाना चाहता हूँ कोई भी प्रदेश न रहेगा सिर्फ एक प्रदेश रहेगा जिसे मै स्थापित करूँगा
सिर्फ तुम
हाँ सिर्फ मै
 
मेरे लिए क्या आदेश है
तू समस्त पृथ्वी पर मेरा यश फैला
मै ही क्यों
क्यों की तेरी इक्षा है
“मै अस्वीकार करू तो”
तू न प्रथम है न अंतिम आगे तेरी इक्षा है  
तरुण की आँखे लाल हो चुकी थी | पता नहीं दुःख था या क्रोध |वह नेता की  तरह सैकड़ो योद्धाओं का निर्माण चाहता था ताकि अल्पकाल में ही सम्पूर्ण भारत में शुभ का मंगलगान हो सके | वह ऐसी व्यवस्था के प्रति सजग लोगो के खोज 
का संकल्प किया | उसी क्षण नेता को छोड़ उन स्वस्तिक वाचन कर रहे नरकंकालो को रोकने पाताल लोक की तरफ अपना डग भरने लगा |   

Tuesday 19 August 2014

कब तक दबाओगे खौलते लावे को

09:48 Posted by Unknown No comments

मुझे इस कविता के लेखक के बारे में कुछ नहीं पता, शायद में जानना भी नहीं चाहता, अक्सर हम कविता से ज्यादा लेखक को महत्व देने लगते है, कुछ लेखकों के कूड़ा-करकट पर भी हम तालियाँ बजाते है की इतना महान लेखक है तो कुछ सोच समझ कर ही लिखा होगा, और कई बार हम पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर कुछ लेखकों की रचनाओं को पहचानने से ही इनकार कर देते है ।
बहरहाल ये कविता 1984 की फिल्म 'पार्टी' से है-

भींचे हुए जबड़े अब दर्द कर रहे है
कितनी देर तक दबाया जा सकता है अन्दर खौलते लावे को
किसी भी पल खोपड़ी क्रेटर में बदल जाए
उससे पहले जानलेवा ऐंठन को लोमड़ी की पूँछ में बांधकर दाग देना होगा
हमले से बढ़कर हिफाजत की कोई रणनीति नहीं है
बेकार है ये सवाल की संगीन(तलवार) किस कारखाने में ढली है
फर्क पड़ता है तो इस बात से की कौन सा हाथ उसे थामे है और किसका सीना उसकी नोंक पर है
फर्क तो पड़ता है की उस जादूनगरी पर किसका कब्ज़ा है
जहाँ रात दिन पसीनों की बूंदों से मोतियों की फसल उगाई जाती है
मानवता के धर्मपिता
न्याय और सत्य का मंत्रालय
कंप्यूटर को सोंपकर आश्वश्त है
वही निर्णय देगा
निहत्थी बस्तियों पर गिराए गए टनों नापाम बम
या तानाशाह की कार पर फेंका गया इकलोता हथगोला
इंसानियत के खिलाफ कौनसा जुर्म संगीनतर है
दरअसल
इंसाफ और सच्चाई में इंसानी दखल से संगीन जुर्म कोई नहीं है
ताक़त
ताक़त बन्दूक की फौलादी नली से निकलती है
या कविता के कागज़ी कारतूस से
जिसके कोष में कहने का अर्थ है होना
और होने की शर्त लड़ना
उसके लिए शब्द किसी भी ब्रम्ह से बड़ा है
जो उसके साथ हर कदम पर खड़ा है
खतरनाक यात्रा के अपने आकर्षण है
आकर्षक यात्रा के अपने खतरे
इन्ही खतरों की सरगम से दोस्त
निर्मित करना है हमें दुधारी तलवार जैसा अपना संगीत

भींचे हुए जबड़े दर्द कर रहे है
कब तक दबाओगे खौलते लावे को

Wednesday 13 August 2014

बादशाह खाँ - राम मनोहर लोहिया

13:33 Posted by Unknown , , No comments


( सन 1965 में काबुल में बादशाह खाँ से मिलकर लौट आने के बाद लोहिया के उदगार)

खान अब्दुल गफ्फार खाँ को हमारी राष्ट्रीय लीडरशिप से शिकायत है की उसने हिन्दुस्तान का बँटवारा करने की बरतानवी साम्राज्यी-स्कीम को स्वीकार करके केवल उनके तथा उनके आन्दोलन के साथ ही नहीं बल्कि पूरी हिंदुस्तानी कौम के साथ गद्दारी की थी ।

यह शब्द तो मेरे हेँ लेकिन इनमेँ आपको खान अब्दुल गफ्फार खाँ के मौन भावों की गूंज सुनाई देगी ।

मेँ चार रोज काबुल रुका । मेँ खान अब्दुल गफ्फार खाँ का मेहमान था । चार दिन हम दोनो एक ही छत के नीचे रहे ।

में उनके सामने शर्मिंदा था । मेँ यह महसूस कर रहा था कि उनकी आँखेँ मुझसे गिला कर  रही हैं कि तुम्हारे लीडरों ने मेरे ओर मेरी कौम के साथ गद्दारी की है !

खान अब्दुल गफ्फार खाँ और उनकी सुर्ख-पोश तहरीक को हमारी आजादी की लडाई का कोई इतिहासकार नहीँ भूल सकता । इनके  नाम हमेशा मोटे मोटे सुनहरे अक्षरों मेँ लिखे जाएंगे । इन बहादुर पठानों ने जिस बहादुरी के साथ अंग्रेजी साम्राज्य का सामना किया था, इसकी दूसरी मिसाल मुश्किल से ही मिल सकती हे ।

पूरे 18 साल के बाद हमने एक दूसरे को देखा था, और यह बडा दर्दनाक दृश्य था । खान अब्दुल गफ्फार खाँ है तो पठान, और बड़े लंबे तगडे पठान, लेकिन मेरा दिल भी बहुत है । उनकी आँखों से आंसू फुट निकले ।

खान साहब आज भी निराश नहीँ है । उनमें ढ्रद निश्चय की भावना इस प्रकार छिपी है जैसे ज्वालामुखी में आग छिपी रहती है ।

उनकी सेहत पहले से अच्छी है, आजादी मिलने के बाद जीवन के पंद्रह बरस उन्होंने  पाकिस्तानी जेलो मेँ काटे है । हो सकता है कि  पाकिस्तानी जेल अंग्रेजी युग की जेल से खराब हों । लेकिन अपना जुल्म तो गैरों के जुल्म से कहीँ ज्यादा हौसले को तोड़ने वाला होता है । जिस्म के साथ-साथ हर प्रकार की शक्ति को कमजोर बना देता है । खान अब्दुल गफ्फार खाँ ने बड़ी हिम्मत से हालात का सामना किया है । अपने जिस्म को वह नहीँ बचा सके लेकिन अपनी आत्मा को उन्होंने घायल नहीँ होने दिया ।

पाकिस्तान की सरकार ने खान साहब को खुशी से नहीँ छोडा हे बल्कि उसे उन्हें मजबूरन छोडना पडा है । जेल के लंबे जीवन ने उन्हें ह्रदय रोग से पीड़ित कर दिया ओर गठिया का भयानक मर्ज उन्हें लग गया । जब उनकी बीमारी ने गंभीर रुप धारण कर लिया तो पाकिस्तान सरकार ने उनकी मौत की जिम्मेदारी से बचने के लिए उन्हें छोड दिया लेकिन साथ ही पाबंदी भी लगा दी कि अपने गाँव से वह बाहर न निकलेँ । ऐसी हालत मेँ उनका इलाज संभव न था । इन हालात मेँ खान साहब ने  बाहर जाने का इरादा किया । इस प्रकार पाकिस्तान सरकार को भी मुहँ मांगी मुराद मिल गई । पाकिस्तान सरकार ने बादशाह ख़ान को देश के बाहर जाने की इजाजत देकर कुछ समय के लिए अपना पीछा छुडाया ।

काबुल मेँ वह सरकारी मेहमान है । एक बडा सा मेहमानखाना, जो केवल विदेशी प्रधानमंत्रियो के लिए था, इनके हवाले कर दिया गया है । और हमारे जमाने का सबसे बड़ा गांधीवादी इस महल मेँ उसी सादगी से रहता है जिस तरह गांधीजी बिड़ला हाउस मेँ रहा करते थे ।

कितनी समानता हे गांधीजी ओर खान साहब मेँ ।

लेकिन खान साहब को भारत से शिकायत है जिसका दूर होना मुश्किल ही मालूम होता है । कांग्रेस को अगर बँटवारा स्वीकार करना ही था तो उसे 6 महीने पहले करना चाहिए था । उस समय बटवारे के नियमो पर अंग्रेज़ खान भाइयों से भी मामला करने पर राजी थे । लेकिन चूंकि तब कांग्रेस बंटवारे की विरोधी थी अतः खान भाइयो ने अंग्रेजो के सुझाव को ठुकरा दिया था । बाद मेँ जब खान साहब कांग्रेस वर्किंग कमिटी के जलसे मेँ शरीक होने दिल्ली आए तो उन्हें मालूम हुआ कि कांग्रेस ने विभाजन स्वीकार कर लिया है । यह खबर सुनकर उन्हें बड़ा क्लेश हुआ था ।

खान साहब अविभाजित भारत के शहरी है ।  इस नाते वह हिंदुस्तानी भी उतने ही है जितना कि पाकिस्तानी । उन्हें अपने देश के इस हिस्से से, जिसमे हम ओर आप रहते है, शिकायत है और यह  हमारा फर्ज है कि हम उनकी शिकायत दूर करेँ ।

Sunday 10 August 2014

AAP : The Way Forward

12:30 Posted by Unknown 1 comment

Whatever the second hand opinions in the media may say, the AAP experiment is necessarily the way forward in Indian democracy, but the real challenge lies in institutionalizing these small changes so that these donot fade away in the moments of failure and doubt.

There have been many socio-political experiments in the 21st century in India, but the uniqueness of the AAP experiment lies in the fact that it has the capacity to go beyond its own prejudices and to to merge with itself the existing people's movements in India. It has no fixed ideology, it's leadership has a wide range of thinkers, ranging from right-wing to left wing to lohiati socialists. The real challenge would be to keep it that way.

The experiments of AAP, right from the candidates selection process to it's funding are instrumental in giving new horizons to the electoral politics in India, which was mostly the same across the party line. While the lutyen-centric analysts may argue that the victory of AAP in delhi was due to personality of Arvind Kejriwal, it was actually due to ideas of Arvind Kejriwal and not due to man himself.

Indian history shows that political parties that have emerged out of political movements have a tendency to get trapped in the personality cult of it's leaders and to deviate from its core issues and principles. What AAP needs to do is to not just keep doing good experiments but to incorporate these in itself in such a way that these can't be deviated from. However, the problem with institutionalizing these experiments lies in a simple fact that constitutions of political parties in India are not recognized by court of law.

The beginning should be made from the candidate selection process. During the loksabha elections, neither there was sufficient time nor organization for a proper candidate selection process, but for next delhi elections (whenever they happen), there is sufficient time and there will be sufficient organizational support to incorporate a transparent and democratic candidate selection process. Reviews of sitting MLAs should be done and women should be given better representation.

AAP should this time have a proper model of implementation of Swaraj, police & judicial reforms when it comes to power. AAP should have the capacity to handle dissent in its organization as well as government. And most importantly, it should have the guts to accept mistakes, like it has shown till now.