( सन 1965 में काबुल में बादशाह खाँ से मिलकर लौट आने के बाद लोहिया के उदगार)
खान अब्दुल गफ्फार खाँ को हमारी राष्ट्रीय लीडरशिप से शिकायत है की उसने हिन्दुस्तान का बँटवारा करने की बरतानवी साम्राज्यी-स्कीम को स्वीकार करके केवल उनके तथा उनके आन्दोलन के साथ ही नहीं बल्कि पूरी हिंदुस्तानी कौम के साथ गद्दारी की थी ।
यह शब्द तो मेरे हेँ लेकिन इनमेँ आपको खान अब्दुल गफ्फार खाँ के मौन भावों की गूंज सुनाई देगी ।
मेँ चार रोज काबुल रुका । मेँ खान अब्दुल गफ्फार खाँ का मेहमान था । चार दिन हम दोनो एक ही छत के नीचे रहे ।
में उनके सामने शर्मिंदा था । मेँ यह महसूस कर रहा था कि उनकी आँखेँ मुझसे गिला कर रही हैं कि तुम्हारे लीडरों ने मेरे ओर मेरी कौम के साथ गद्दारी की है !
खान अब्दुल गफ्फार खाँ और उनकी सुर्ख-पोश तहरीक को हमारी आजादी की लडाई का कोई इतिहासकार नहीँ भूल सकता । इनके नाम हमेशा मोटे मोटे सुनहरे अक्षरों मेँ लिखे जाएंगे । इन बहादुर पठानों ने जिस बहादुरी के साथ अंग्रेजी साम्राज्य का सामना किया था, इसकी दूसरी मिसाल मुश्किल से ही मिल सकती हे ।
पूरे 18 साल के बाद हमने एक दूसरे को देखा था, और यह बडा दर्दनाक दृश्य था । खान अब्दुल गफ्फार खाँ है तो पठान, और बड़े लंबे तगडे पठान, लेकिन मेरा दिल भी बहुत है । उनकी आँखों से आंसू फुट निकले ।
खान साहब आज भी निराश नहीँ है । उनमें ढ्रद निश्चय की भावना इस प्रकार छिपी है जैसे ज्वालामुखी में आग छिपी रहती है ।
उनकी सेहत पहले से अच्छी है, आजादी मिलने के बाद जीवन के पंद्रह बरस उन्होंने पाकिस्तानी जेलो मेँ काटे है । हो सकता है कि पाकिस्तानी जेल अंग्रेजी युग की जेल से खराब हों । लेकिन अपना जुल्म तो गैरों के जुल्म से कहीँ ज्यादा हौसले को तोड़ने वाला होता है । जिस्म के साथ-साथ हर प्रकार की शक्ति को कमजोर बना देता है । खान अब्दुल गफ्फार खाँ ने बड़ी हिम्मत से हालात का सामना किया है । अपने जिस्म को वह नहीँ बचा सके लेकिन अपनी आत्मा को उन्होंने घायल नहीँ होने दिया ।
पाकिस्तान की सरकार ने खान साहब को खुशी से नहीँ छोडा हे बल्कि उसे उन्हें मजबूरन छोडना पडा है । जेल के लंबे जीवन ने उन्हें ह्रदय रोग से पीड़ित कर दिया ओर गठिया का भयानक मर्ज उन्हें लग गया । जब उनकी बीमारी ने गंभीर रुप धारण कर लिया तो पाकिस्तान सरकार ने उनकी मौत की जिम्मेदारी से बचने के लिए उन्हें छोड दिया लेकिन साथ ही पाबंदी भी लगा दी कि अपने गाँव से वह बाहर न निकलेँ । ऐसी हालत मेँ उनका इलाज संभव न था । इन हालात मेँ खान साहब ने बाहर जाने का इरादा किया । इस प्रकार पाकिस्तान सरकार को भी मुहँ मांगी मुराद मिल गई । पाकिस्तान सरकार ने बादशाह ख़ान को देश के बाहर जाने की इजाजत देकर कुछ समय के लिए अपना पीछा छुडाया ।
काबुल मेँ वह सरकारी मेहमान है । एक बडा सा मेहमानखाना, जो केवल विदेशी प्रधानमंत्रियो के लिए था, इनके हवाले कर दिया गया है । और हमारे जमाने का सबसे बड़ा गांधीवादी इस महल मेँ उसी सादगी से रहता है जिस तरह गांधीजी बिड़ला हाउस मेँ रहा करते थे ।
कितनी समानता हे गांधीजी ओर खान साहब मेँ ।
लेकिन खान साहब को भारत से शिकायत है जिसका दूर होना मुश्किल ही मालूम होता है । कांग्रेस को अगर बँटवारा स्वीकार करना ही था तो उसे 6 महीने पहले करना चाहिए था । उस समय बटवारे के नियमो पर अंग्रेज़ खान भाइयों से भी मामला करने पर राजी थे । लेकिन चूंकि तब कांग्रेस बंटवारे की विरोधी थी अतः खान भाइयो ने अंग्रेजो के सुझाव को ठुकरा दिया था । बाद मेँ जब खान साहब कांग्रेस वर्किंग कमिटी के जलसे मेँ शरीक होने दिल्ली आए तो उन्हें मालूम हुआ कि कांग्रेस ने विभाजन स्वीकार कर लिया है । यह खबर सुनकर उन्हें बड़ा क्लेश हुआ था ।
खान साहब अविभाजित भारत के शहरी है । इस नाते वह हिंदुस्तानी भी उतने ही है जितना कि पाकिस्तानी । उन्हें अपने देश के इस हिस्से से, जिसमे हम ओर आप रहते है, शिकायत है और यह हमारा फर्ज है कि हम उनकी शिकायत दूर करेँ ।
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